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कविता

लिखना नहीं मेघगर्जना के बारे में

बेल्‍ला अख्‍मादूलिना


मेघगर्जनाओं की फैली है अव्‍यवस्‍था आकाश में,
लिखना नहीं है मुझे कुछ भी उसके विषय में।
भेंट करनी है उसे स्‍वतंत्रता
अ‍चर्चित बने रहने
और जल-ग्रहण कर रही पृथ्‍वी के
ऊपर लटके रहने की।

मैं क्‍या आज उसकी न्‍यायाधीश हूँ
कहूँ कि उसकी प्रशस्ति देती है आनंद!
संबंधों के ऊँच-नीच के गणित की अवज्ञा करते हुए
बैठा दूँ अपने को भयाक्रांत उद्यान के आगे!

क्‍या मैं उसकी निंदक और दुश्‍मन हूँ
कि घिसे-पिटे ये कविता-अंश
इन उदात्‍त वनों और घाटियों पर
जल्‍दबाजी में उगल दें अपने विचार?

प्रकृति का मूल दर्शक बने रहने का
कम-से-कम एक बार तो आये विचार,
मौसम की प्रसारित रिपोर्ट में अपना
एक भी शब्‍द जोड़े बिना।

मेज पर हाथों को दौड़ाना भी क्‍या श्रम हुआ?
यह आराम है, पुरस्‍कार है उस यातना के लिए
जब माथे के अंधकार भरे भार को
थामते हो तुम अपने दाहिने हाथ से।

बीत गया है समय। खोलती हूँ आँखें -
लिखता ही चला जाता है मेरा हाथ।
सदा के लिए बिछुड़ गये हैं गरजते बादल,
कुरूपों के सब प्रिय विशेषण।

इस बीच सफल हो जाता है हाथ
शिशु उल्‍लास से अपने कापी को खींचने में।
प्रेम में, अशांति में, अवसाद में
सबका बारी-बारी से वर्णन करने में।

 


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